बहुसंस्कृतिवाद और पारस्परिक सहनशीलताः- अतिवाद को रोकने के लिए

भारत की बहुसंस्कृतिवाद, पारस्परिक सहनशीलता और अंतर-धर्म समानता की विरासत रही है, जिसने लोगों को एक दूसरे से अनन्त काल से जोड़े रखा है। इसमें गंगा-जमुनी तहजीब को कायम रखना या उसे और अधिक सशक्त करना तथा लोगों के बीच समन्वयी संस्कृति शामिल है। वास्तव में देश की बुनियाद को पुष्ट करने वाले इन संघटकों ने भारतीयों को अधिक मैत्रीपूर्ण, दयालु, आनंदमय तथा साझा मूल्यों के प्रति गहन स्वीकारोक्ति रखने वाला बनाया है, जिसने विदेशी आक्रांताओं/शत्रु शक्तियों, आतंकवादी समूहों, पृथकतावादियों द्वारा अनेक धर्मों/आस्थाओं वाले नागरिकों के बीच फूट डालने के सभी प्रयासों को विफल किया। भारत में 200 मिलियन मुसलमान उलेमाओं और सूफियों द्वारा भी, विशेष रूप से 1857 के विद्रोह तथा औपनिवेशिक हत्याकान्डों के विरूद्ध अनुवर्ती संघर्षों के दौरान, भाइचारे, पूर्ण सह अस्तित्व, वीरोचित देशभक्ति तथा परम्परा की सुरक्षा/संरक्षा हेतु बलिदान देने के सदियों से वसीयतदार रहे हैं। मुसलमानों/मुस्लिम संगठनों ने कुरान और पैगम्बर के समर्थन में मौलाना आजाद, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, अब्दुल गफ्फार खान जैसे नेताओं की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए, अपने हिंदू भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ जंग लड़ी। यह अंतर्धर्म समन्वय देश की नींव को मजबूत करने तथा अनुवर्ती वृद्धि के लिए सिद्ध आधार है।


     जोर जबरदस्ती तथा बल प्रयोग अतिवाद/आतंकवाद को रोकने में सक्षम नहीं हो सकता, अपितु समन्वयी संस्कृति को बढ़ावा देने के साथ ही साथ घृणा फैलाने वाली/विघटनकारी शक्तियों को रोकना ही इन अवैध तत्वों के विरूद्ध उपयुक्त रणनीति है।